शुक्रवार, जुलाई 07, 2017

भूले बिसरे खेल...
मेरा बेटा डेढ़ साल का हो गया. समझ नही आता उसके साथ कौन सा खेल खेलूं. उसे छुपम छुपाई बहुत पसंद आता है, पानी के साथ खेलना पसंद आता है, एक दूसरे के पीछे भागना पसंद आता है पर सबसे ज्यादा मजे और ध्यान से वो फ़ोन और टी वी देखता है. खुद का बचपन याद करती हूँ तो वहां टी वी या फ़ोन बिल्कुल नज़र नही आता. मैं अपने भाई बहनों के साथ पलंग के नीचे साड़ी से पूरी तरह घेर कर घर घर खेलती थी. उस घर में किचन से खाना लाकर झूठ मूठ का खाना बनाकर खाते थे. क्या बताऊँ क्या मजा था उस खेल में. घर के दाल चावल बाहर के कड़ाई पनीर से लाख गुना अच्छे लगते थे. और भी कई खेल हम खेलते थे. आज माँ से उनके बचपन के बारे में पूछा कि वो कैसे खेलती थी. उन्होंने कई खेल बताये जो मुझे मेरे खेल और मेरे बेटे के खेल से भी दिलचस्प लगे. पीढ़ी का अंतर नज़र आया. माँ से मेरी बातचीत अवधी बोली में हुई जिसका अनुवाद करके बात आगे बढ़ाऊंगी. माँ ने बताया जब हमारे गांव में बारिश नही पड़ती थी, सूखा पड़ा रहता था, धान वान सुखा जाते थे तो गांव की सभी कुवारी लड़कियां बासे की करईन यानी छोटे बास को पकड़ कर रोती थी . ये रोना गीतनुमा होता था. एक गाती थी बाकी सभी उस गीत को पीछे पीछे पूराती थी यानी दोहराती थी. गीत कुछ इस तरह था...
अरे मोरी करीला
बाबा के सठिया झुरइला हो करीला
बाबा के धनवा झुरइला हो करीला
अब बाबा रखिये कुवारी हो करीला
धनवा के देसवा बियहिया हो करीला
एड़िया उचाई धान कुटबो हो करीला
झुलनी उठाई माड़ पियबो हो करीला...
ये गीत गाना और बांस को भेटना कोई एक दिन ही नही चलता था बल्कि सप्ताह भर हम जाते थे. सप्ताह बाद भगवान खूब झमझमा के बरसते थे. ताकि सूखे की वजह से कोई लड़की कुवारी नही रह जाये सबका ब्याह हो जाएं. ऐसे ही अनेकों कहानियां है कभी फुरसत में साझा करूँगी....

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